( November 13, 2011 )
नेहरू जी का जन्मदिन 14 नवम्बर ‘बाल दिवस’ बच्चों की दो तस्वीरों के साथ हाजि़र होता है.
पहली तस्वीर वह जिसमें बच्चे सुबह उठकर, अच्छे कपड़े पहनकर, टिफिन लेकर स्कूल के लिये रवाना होते हैं और दूसरी तस्वीर वह जिसमें बच्चों को दोपहर की एक अदद रोटी की जुगाड़ के लिये मेहनत करने काम पर निकलना होता है.
बाल दिवस पर विशेष
भारत में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के जन्मदिन 14 नवम्बर को महानगरों के खाते-पीते बच्चों के लिये बाल दिवस का दिन की मस्ती भरे कार्यक्रमों का है. लेकिन सीलमपुर का ज़हीन, जगतपुरी का अमन और कापसहेड़ा की चुनिया ऐसे बच्चे हैं जिनके लिये यह बाल दिवस ज़रा बेमानी सा है. आज भी उन्हें रोज की तरह जिंदगी की जंग लड़ने के लिये मशक्कत करने निकलना है
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में बाल श्रमिकों की संख्या 24.6 करोड़ है जिनमें से भारत में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं. दिन भर काम करने के बाद सिर्फ मालिकों की प्रताड़ना, उनके अपशब्द और कई मामलों में उनकी यौन कुंठाओं की तृप्ति ही ऐसे बच्चों की तकदीर बनती है.
गैर सरकारी संगठन ‘सेव द चिल्ड्रन’ की प्रिया सुब्रमण्यम बताती हैं कि जहां एक ओर सरकार अपनी योजना ‘शिक्षा का हक’की बात कर रही है वहीं देश में छह करोड़ बच्चे विद्यालय से दूर हैं. प्रिया की नज़र में यह विडंबना है कि जो सरकार बालश्रम उन्मूलन के कार्यक्र म को सही तरह अंजाम नहीं दे पाई उसने शिक्षा का अधिकार जैसी योजना चलाई. बालश्रम उन्मूलमन कानून में खामियां गिनाते हुये वह कहती हैं कृषि को भी सरकार ने बालश्रम के दायरे में क्यों नहीं रखा.
आज़ादी की आधी सदी बीत जाने के बाद, सूचकांक के रोज जादुई आंकड़े छू लेने और विकास दर के नये नये दावों के बाद भी झुग्गियों में रह रहे करोड़ों बच्चों के लिये कुछ भी नहीं बदला है. अभी भी कॉलोनियों के बाहर पड़े कूड़े में जूठन तलाशते और दो जून की रोटी के लिये तरसते बच्चों की संख्या से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि बच्चों के संरक्षण और विकास के नाम पर साल दर साल हो रही योजनाओं का ऐलान कितना बेमानी सा है.
देश में 44 हजार बच्चे हर साल गायब हो जाते हैं। यह बच्चे कहां गये इसका किसी को कुछ पता नहीं चलता. ऐसे बच्चों के यौन शोषण के मामले जितने तंग बस्तियों में हैं उससे कहीं ज्यादा आलीशान इमारतों और बंगलों में सामने आते हैं.
‘स्माइल फांडडेशन’ के निदेशक एच एन सहाय का कहना है कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में कागज़ी आंकड़े और ज़मीनी हकीकत में बहुत फर्क है. उनका मानना है कि सरकार की बाल अधिकारों से जुड़ी योजनाओं में बुनियादी खामियां हैं.
सहाय कहते हैं कि जो बच्चे कभी पाठशाला ही नहीं जा पाये हैं उनके लिये शिक्षा का अधिकार अभी भी बेमानी है. उन्हें पहले नौपचारिक शिक्षा के ज़रिये काबिल बनाना चाहिये तब जाकर उन्हें मुख्य शिक्षा प्रणाली का हिस्सा बनाना चाहिये.
देश में हर साल 17.6 लाख बच्चों की मौत ऐसी बीमारियों से हो जाती है जिनका इलाज संभव है. ऐसी चुनौतियां इस बात का संकेत हैं कि बाल दिवस के मायने तभी होंगे जब ज़हीन, अमन और चुनिया जैसे बच्चों को भी बेहतर जीवन मिलेगा.